पुरानी दिल्ली आज कुछ नई नई सी लगी और अपनी भी ।
लाल किले की दीवारों के सामने उसके साथ चल मैं आज़ाद महसूस कर रहा था खुद को । वाकिफ़ थी वो उस नई सड़क के पुराने रास्तों से पर रिक्शे में उसके साथ बैठा मैं सब कुछ भूल बैठा था ।
वो चारों तरफ देख रही थी और मेरी नज़र चारों तरफ घूम कर उसके चेहरे पे आकर रुक रही थी ।
दिल यूँ ही थोड़ी मुस्कुरा रहा था और साँस भी आ जा रही थी उसके लिये ।
सड़क पर उसका हाथ पकड़ कर चलते वक़्त मैं आज खुद को खास महसूस कर रहा था ।
ऐसा लग रहा था ज़िन्दगी को इससे ज़्यादा और क्या चाहिये जब हम दोनों बिन बोले बातें कर रहे थे ।
“कौन से रंग का लहँगा अच्छा लग रहा है बताओ न ”
मैं कैसे कह पाता मुझपे तो इश्क़ का रंग चढ़ा हुआ था ।
दाम कम कराते वक़्त उसने पूछा कितना देना चाहिये इसका …तो बस कहते कहते रह गया कि मेरे लिए सबसे बेशकीमती तुम हो ।
यूँ तो घंटो देखा हूँ तुम्हारी तस्वीर को पर जब तू रूबरू आया मैं नज़रें ना मिला पाया ।
शायद तुम्हें भी महसूस हुआ हो मैंने दो बार हाथों को तुम्हारी ज़ुल्फ़ों को सँवारने से रोका । जाने कितनी बार ही नज़दीक रखा अपनी उँगलियों को तुम्हारे की तुम मेरा हाथ थाम लो ।
कहाँ खोये हुये हो तुम? इसका जवाब कहीं नहीं की जगह “तू न हो तो मैं कहाँ हूँ ” देना चाहता था ।
पता भी है तुम्हें वापस लौटने से पहले मैं क्यों तुम्हारे इतने नजदीक खड़ा रहा ।
शायद तुम्हें भी पता हो और वो दीवार जो थी भी नहीं भी उसे तोड़ कर मैं जाते वक़्त तुम्हें सीने से लगा बस इतना कहना चाहता था
“ख़ुश हो गये हम तो “